शिव इच्छा अनुसार ब्रह्मा जी ने इस ब्रह्माण्ड की रचना आरम्भ करी परन्तु ब्रह्माण्ड की रचना शिव तत्त्व के बिना तो संभव ही नहीं थी। इसलिए ब्रह्मा जी ने पुनः भगवान शिव का स्मरण किया और उनसे सहायता करने का आग्रह किया। इस पर भगवान शिव ने ब्रह्माण्ड रचना मैं ब्रह्मा जी की सहायता करने का संकल्प लिया।
ब्रह्माण्ड की रचना करने के लिए सर्वप्रथम एक विशाल अण्ड की आवस्यकता थी। भगवान शिव की इच्छा अनुसार माता कुष्मांडा (माता दुर्गा का चौथा स्वरुप) प्रकट हुई। माता कुष्मांडा ने अपनी मंद हसीं के द्वारा एक विशाल अण्ड की रचना करी। यह अण्ड 24 तत्वों का समूह था और इस अण्ड की रचना शिव-शक्ति तत्वों द्वारा हुई।
(इसी लिए कहा गया है की: शिव की महिमा से ही सृष्टि का संचालन होता है। सृष्टि के कण-कण में शिव का वास है।)
अण्ड की रचना तो होगई परन्तु यह अण्ड जड़ रूप ही था, उसमें चेतना नहीं थी। उसमे चेतनता न देख कर ब्रह्मा जी ने भगवान श्री हरी विष्णु की तपस्या करी। 12 वर्षो की तपस्या के बाद भगवान श्री हरी विष्णु प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्होंने अण्ड में चेतना उत्पन्न करने का संकल्प लिया।
चेतना उत्पन्न करने के उद्देश्य से भगवान् श्री हरी ने अनंत रूप धारण कर उस अण्ड में प्रवेश कर लिया और उस तत्व समूह को अपनी क्रिया शक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया। अपने अनंत रूप में भगवान श्री हरी परम पुरुष कहलाये जिनके सहस्त्रो मस्तक, सहस्त्रो नेत्र और सहस्त्रो पैर थे। उन्होंने सब ओर से घेर कर उस अण्ड को व्याप्त कर लिया और अब ये अण्ड सचेतन हो गया। पाताल से लेकर सत्य लोक तक की अवधि वाले उस अण्ड के रूप में वहाँ साक्षात् श्री हरी ही विराजने लगे।
इसी कारन भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है की:
‘हे अर्जुन ! मेरे अतिरिक्त दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है। माला के सूत्र में पिरोये हुए मणियों के समान यह समस्त ब्रह्माण्ड मुझमें पिरोया हुआ है।’ (गीता ७।७)
उस अण्ड में व्यापक होने के कारन भगवान श्री हरी विराट पुरुष कहलाये। यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीवरूप में परमात्मा का अंश और प्रथम प्रकट होने के कारण भगवान का आदि अवतार है । इन्हें ‘आदि पुरुष’ (adi purusa) भी कहते हैं ।
चेतना प्राप्त होने के उपरांत उस महा विशाल अण्ड में एक महा विस्फोट हुआ और सृष्टि अपना आकर लेने लगी। ब्रह्मा की इच्छा से प्रकट हुए उस अण्ड के कारण ही सृष्टि का नाम ब्रह्माण्ड हुआ।
सृष्टि के नवीन सृजन के समय जब संपूर्ण सृष्टि जल मग्न थी, उसमे थल अंश मात्रा ही था। जो जल में उसी प्रकार विद्यमान था, जैसे घृत जल में रहकर भी उससे पृथक ही रहता है। यह थल कोमल भी था और इसे कठोर बनाना था जिससे इस पर जीवन का संचार हो सके।
नारायण तामसी प्रभाव में आकर माया से वशीभूत थे और जल पर अपना आसान ग्रहण करके गहन निद्रा में थे। उन्हें निद्रा से जगाना अति आवश्यक था।
नारायण के कान के मैल से, देवी महामाया की लीला से, दो असुर मधु और कैटभ उत्पन्न हुए। मधु और कैटभ ने ब्रह्म लोक पर अपना अधिपत्य स्थापित करने की कोशिश की जिस कारण ब्रह्मा जी ने स्वयं की रक्षा हेतु नारायण का आवाहन किया। जब बहुत समझने पर भी मधु और कैटभ नहीं माने तो नारायण और मधु कैटभ का युद्ध होने लगा। अंततः युद्ध में नारायण की विजय हुई। मधु और कैटभ के अंत से एक नवीन आरम्भ हुआ क्यूंकि मधु और कैटभ के खंडित शरीरो की मोदिनी एक साथ आने से जल पर चलायमान थल के अंश को कठोरता प्राप्त हुई। यह पृथ्वी का आरम्भ था।
इस मोदिनी से पृथ्वी की सतह कठोर हुई और पृथ्वी पर जीवन संभव हुआ।
जल और थल तो आगये किन्तु और कुछ भी नहीं था इसलिए सृष्टि अब भी अपूर्ण थी। जल और थल के बाद प्राण ऊर्जा प्रदान करने के लिए सूर्य की आवस्यकता थी। माँ तारा (माता महाकाली की द्वितीय महाविद्या) और अक्षोभ्य (शिव के रूप जो माँ तारा के साथ रहते है) ने आदित्य सूर्य का सृजन किया।
आदित्य सूर्य के बिना पृथिवी केवल पिंड मात्रा थी जिस पर जीवन संभव नहीं था इसलिए माँ तारा का उद्भव हुआ। तारा का अर्थ है जगत को तारने वाली। माँ तारा का साथ देने के लिए महादेव शिव ने अक्षोभ्य स्वरुप धारण किया। अक्षोभ्य का अर्थ है जो प्रत्येक अवस्था में सदा शोभ्य रहते है। महादेव हमेशा शोभ्य रहते हैं। हलाहल विष का पान करने के बाद भी व्यथित नहीं हुए वो, सदा शांत रहते हैं वो।
माँ तारा में ही ऊर्जा, ऊष्मता और प्रकाश उत्पन्न करने का सामर्थ्य है। और जब उस ऊर्जा का सयोग प्रभु अक्षोभ्य की ऊर्जा से हुआ तो वो साईयुक्त ऊर्जा आदित्य सूर्य के अस्तित्व का आधार बनी। जब माँ तारा और प्रभु अक्षोभ्य की साईयुक्त ऊर्जा सागर के जल में समाहित हुई तो वह अनेको प्रज्वलित ऊर्जा पिंड उत्पन्न हुए जिससे ऊर्जा का अद्भुत विस्तार हुआ। फिर देवी तारा ने अपनी श्वास वायु से एक प्रचंड वायु प्रवाह उत्पन्न किया जिसके टकराव से उन ऊर्जा पिंडो की संख्या में और वृद्धि के साथ उनका जुड़ाव आरम्भ हुआ। और तब जल के भीतर निरंतर बढ़ती ऊर्जा के केंद्र आदित्य सूर्य का आकर दिखाई देने लगा।
और फिर प्रभु अक्षोभ्य और देवी तारा की ऊर्जा से आदित्य सूर्य प्रस्तुत हुए।
आदित्य सूर्य ने प्रकट होते ही माँ तारा और प्रभु अक्षोभ्य को उन्हें जीवन प्रदान करने के लिए धन्यवाद दिया। माँ तारा ने आदित्य सूर्य को उनका दायित्व समझाया और उन्हें उनका दायित्व सँभालने का आदेश दिया। सूर्य देव से ही संसार में प्राण शक्ति उत्पन्न हुई जिससे प्राणियों का जीवन आरम्भ हुआ।
आदित्य सूर्य का दायित्व सँभालने के बाद माता ने अपने कुष्मांडा रूप में सूर्य के केंद्र में अपना स्थान ग्रहण किया क्यूंकि सूर्य की ऊर्जा का केंद्र माता कुष्मांडा ही हैं। माता कुष्मांडा के बिना सूर्य की ऊर्जा मंद पड़ जाएगी। सूर्य सृष्टि को जीवन प्रदान करते हैं किन्तु उसका कारण माता कुष्मांडा ही हैं। माता कुष्मांडा की शक्ति ही सूर्य को इसमें समर्थ बनती है।
सृष्टि अभी भी अपूर्ण थी। पृथ्वी पर अभी भी शुद्ध पानी देने वाली नदी, झरने, फल देने वाले वृक्ष, अनाज उत्पन्न करने वाले पौधे आदि अर्थात प्रकृति प्रकट नहीं हुई थी। सूर्य की अति ऊर्जा का तो निरंतर विस्तार हो रहा था जिससे संपूर्ण सृष्टि प्रकाशमय होगई थी। माँ तारा और प्रभु अक्षोभ्य की ऊर्जा का तो अनुमान लगाना भी असंभव है। उनकी ऊर्जा से कदाचित प्रकृति भस्म हो सकती थी। इसलिए प्रकृति के सृजन के लिए माता महाकाली ने धारण किया अपना तृतीया महाविद्या स्वरुप देवी षोडशी का। उनका साथ देने के लिए महादेव शिव ने लिए पंचवक्र का रूप। इस रूप में महादेव के पांच मुख है जिनके नाम है तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर और ईशान।
देवी षोडशी की हथेली से जल की 1 बूँद पृथ्वी पर गिरी जिससे पेड़ पोधो का जन्म हुआ । उनके संकेत पर आदित्य सूर्य ने अपनी ऊर्जा का संपादन किया जो देवी षोडशी के माध्यम से पृथ्वी तक पहुंची। इससे जीवन का बीज अंकुरित हुआ और फलने फूलने लगा। फिर उनकी कृपा से और उनकी निगरानी में प्रकृति का विस्तार हुआ। पौधा लहलहा उठे, पुष्प खिल उठे और उनके सेहत वन्य जीवो में भी प्राणो का संचार हुआ। प्रकृति अपने पूर्ण वैभव में जीवन का आधार बनी। इस प्रकार देवी षोडशी और प्रभु पंचवक्र ने प्रकृति को आरंभिक रूप दिया।
सृष्टि आरम्भ होचुकी थी अब देवताओ का जन्म होना भी अनिवार्य था। ब्रह्मदेव ने अपनी मानस सन्तानो को जन्म दिया : धर्म , रूद्र , सनन्दन, सनातन, भृगु , मरीचि , अत्रि , अंगिरस , अंगिरा , पुलस्त , क्रतु , कश्यप, सनत्कुमार, वृद्धि, प्रति, वसिस्थ और नारद (ये प्रथम कल्प या मन्वन्तर के है यह ज्ञात नहीं है )। इनकी उत्त्पत्ति के बाद ब्रह्मदेव के द्वारा बहिरशद, अग्निश्वत, कवयत , अजयाप्त , सुकालीन, उपहुत और दिव्य नमक पितृ गणो का भी प्रादुर्भाव हुआ। फिर ब्रह्मदेव ने अपने बाये अंगूठे से दक्ष को जन्म दिया। किन्तु ब्रह्मदेव की मानस संताने वश वृद्धि करने में असमर्थ थी। इसिलए सृष्टि के विस्तार के लिए प्रजनन की आवश्यकता थी। और ये प्रजनन शक्ति संसार को देने की क्षमता ब्रह्मदेव में नहीं थी । इसीलिए ब्रह्मदेव ने भगवन सदाशिव की तपस्या आरम्भ की। उस समय शिव और शक्ति सईयुक्त थे , अर्धनारीश्वर रूप में थे ।
ब्रह्मदेव की तपस्या से वो प्रसन्न हुए और वरदान देने के लिए प्रकट हुए। ब्रह्मदेव बोले की:
मेरे द्वारा जिन जीवो का सृजन हुआ है उनकी संताने उत्पन्न हो सके उसके लिए प्रजनन अति आवश्यक है। और ये तभी संभव है जब प्रकृति शिव से पृथक हो, और ऐसे स्त्री पुरुष का जन्म हो जिनसे मैथुनी संस्कृति का आरम्भ हो सके।
इस पर अर्धनारीश्वर भगवन सदाशिव बोले की :
यदि सृष्टि के आरम्भ और उसके कल्याण के लिए हमें अलग होना पड़ेगा तो ऐसा ही होगा। यह कहकर शिव और शक्ति तत्काल ही पृथक होगये। उनके पृथक होने के बाद उनसे एक पुरुष ‘मनु’ और एक स्त्री ‘शतरूपा ‘ का जन्म हुआ।
उन्दोनो से प्रियवर और उत्तानपाद नमक दो पुत्रो का जन्म हुआ। आकृति , देवहुति और प्रसूति नमक 3 कन्याओ का भी जन्म हुआ। उनकी इन सन्तानो का विवाह ब्रह्मदेव की मानस सन्तानो से हुआ। इससे मैथुनी सृष्टि का आरम्भ हुआ और सृष्टि का विस्तार होने लगा।
दक्ष और प्रसूति के विवाह से बहुत सारी सन्तानो का जन्म हुआ जिनमे से 13 कन्याओ का विवाह ऋषि कश्यप से हुआ। ऋषि कश्यप और उनकी पत्नियों से देव, दैत्य, दानव, अश्व, गंधर्व, वृक्ष, अप्सरा, नाग, सर्प, गऊ, भैंस, हिंसक जीव , गिद्ध आदि जीव, जलचर, गरुड़ आदि जीवो का जन्म हुआ। इन्ही से संसार की समस्त प्रजातियों का जन्म हुआ।
परन्तु संसार की रचना अभी भी पूरी नहीं हुई थी । मात्रा 1 पृथ्वी से संसार की रचना नहीं होती है। इतनी सारी प्रजातियों के लिए उनके भुवनो और लोको की भी आवश्यकता थी। भुवनो की रचना के लिए माता भुवनेश्वरी (माता महाकाली की चतुर्थ महाविद्या) का प्रादुर्भाव हुआ। माता भुवनेश्वरी के साथ भगवन शिव अपने त्रयम्बक रूप में प्रकट हुए। प्रभु त्रयम्बक के आग्रह पर माता भुवनेश्वरी ने भुवनो का निर्माण आरम्भ किया।
सबसे पहले सत्य लोक का आविर्भाव हुआ जहा पर ब्रह्म देव निवास करते है। ये समस्त लोको में सर्वोच्च लोक है। यहाँ के वासी जन्म और मरण के चक्र से मुक्त है।
फिर तप लोक प्रस्तुत हुआ जहा शरीर रहित पुण्य आत्माओ का वास है। जो इस लोक में वास करते है वो सत्य लोक में प्रस्थान की प्रतीक्षा में रहते है।
फिर ज्ञान लोक प्रस्तुत हुआ जहा जिज्ञासा से परिपूर्ण तपस्वी वास करते है।
उसके पश्चात महर लोक का आविर्भाव हुआ जहा तप की पराकाष्ठा के उपरांत ऋषियों और मुनियो को स्थान प्राप्त होता है। जो ऋषि यहाँ वास करते है उनकी शक्तिया देवताओ की शक्तियों के सामान होती है। इस लोक में सप्त ऋषियों का वास होता है।
इसके बाद आनंद लोक अर्थात स्वर्ग लोक आता है जो देवताओ और उत्तम पुण्य कर्म करने वालो का निवास है।
जिसके बाद भुवर लोक है जहा सूर्य देव और अन्य नव गृह स्थित है।
भुवर लोक के पश्चात मनुस्यो और अन्य प्राणियों के लिए भू लोक है अर्थात पृथ्वी।
ये सब लोक सात्विक प्राणियों के लिए थे।
इसके बाद भूमि के नीचे के लोक प्रकट हुए।
इसमें सर्व प्रथम है अटल लोक। ये भोग विलास का लोक है। भूमि की अटल धन सम्पदा यही संचित रहती है।
फिर विटल लोक , जहा भूमिगत जीव स्वर्ण आदि का खनन करने हेतु निवास करते है। विटल लोक भी अटल लोक के सामान भौतिक संपत्ति पर केंद्रित लोक है।
इसके बाद सूतल लोक का आविर्भाव हुआ जहा दैत्यराज बलि का राज है।
फिर तलातल लोक की उत्पत्ति हुई।
फिर उसके नीचे महातल उत्पन्न हुआ । यही नाग लोक है जहा नाग पुरुष और नाग कन्याओ का वास है।
फिर उसके भी नीचे दैत्यों और दानवो का लोक रसातल है।
और सबसे नीचे पटल लोक का आविर्भाव हुआ। यहाँ नागराज वासुकि का वास है। यही सभी अन्य भुवनो का आधार है।
इस प्रकार माता भुवनेश्वरी ने सरे लोको की रचना की। तत्पश्चात मैथुनी सृष्टि का आरम्भ हो सका। प्रत्येक प्राणियों को उनका स्थान उनके कर्मो के अनुसार दिया गया।
अब समस्त जीवो का जन्म तो होने लगा परन्तु किसी की भी आयु समाप्त नहीं होती और न ही स्वाभाविक मृत्यु होती। इस कारण समस्त सृष्टि में असंतुलन उत्पन्न होने लगा। अब माता भैरवी का आविर्भाव हुआ। माता भैरवी के साथ भगवन शिव कालभैरव रूप में प्रकट हुए। माता भैरवी को त्रिपुर भैरवी और गिरिजा भैरवी भी कहा जाता है। भगवान कालभैरव के पुराणों में 52 स्वरूप बताए हैं और उन्हें तामसिक देव भी कहा जाता है और दिशाओं का रक्षक माना जाता है।
माता भैरवी और भगवान कालभैरव ने यह व्यवस्था रची की प्रत्येक जीव के जन्म के साथ ही, उसके कर्मो के आधार पर ब्रह्मदेव उसकी आयु निर्धारित करेंगे। प्रत्येक युग में मनुस्यो की आयु और लम्बाई भिन्न होगी। सतयुग में मनुष्यो की आयु 100000 वर्ष और लम्बाई 21 हाथ होगी। त्रेता युग में मनुस्यो की आयु 10000 और लम्बाई 14 हाथ होगी । द्वापर युग में मनुस्यो की आयु 1000 वर्ष और लम्बाई 7 हाथ होगी। कलयुग में मनुस्यो की आयु 100 वर्ष और लम्बाई साढ़े तीन हाथ होगी। जैसे जैसे कलयुग आगे बढ़ता जाएगी, मनुस्यो की आयु और लम्बाई काम होती जाएगी। कलयुग के अंत में मनुस्यो की आयु केवल 12 वर्ष रहेगी और लम्बाई बहुत काम रह जाएगी। सामान्य रूप से मनुस्यो की यही आयु रहेगी। किन्तु प्रत्येक मनुष्य की वास्तविक आयु उसके पूर्व जन्मो के अनुसार होगी जो दीर्घ भी हो सकती है और अल्प भी हो सकती है।
जीवन के उपरांत, नश्वर शरीर के नष्ट होने के बाद आत्माओ का एक अन्य लोक में निवास होगा। इसका निर्माण माता भैरवी ने किया। धर्म परायण और सदाचारी जीवो की आत्माओ के लिए ये लोक स्वर्ग के सामान होगा और पापियों के लिए यह लोक नर्क के सामान होगा। आत्माओ को यहाँ कर्मो का फल भोग कर, प्रायश्चित और साधना कर शुद्धि प्राप्त होगी। जो सत्कर्म कर यहाँ पहुंचेंगे उन्हें यहाँ के बाद स्वर्ग में स्थान मिलेगा और दुष्कर्मियों को यहाँ के बाद निम्न लोको में जाना होगा । किन्तु जिन जीवो के लिए भक्ति ही सर्वोपरि है उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी और वो विष्णु लोक (बैकुंठ) , ब्रह्मलोक (सत्य लोक ) या शिव लोक (कैलाश) में स्थित होंगे।
अब भी काल देवता की आवस्यकता थी जो की उस लोक का सारा कार्यभार संभाले, उनके दूत यानि काल दूतो की आवस्यकता थी और उनके पाश की आवस्यकता थी जिससे की प्राणियों की आत्मा उनके शरीर में से निकली जा सके।
जब आदित्य सूर्य का सृजन हुआ था तब उनके तेज का उत्पन्न होना आरम्भ ही हुआ था । उन्हें 1 पुत्री यमी एवं 1 पुत्र यम भी हुए थे। कुछ समय के लिए तो सब कुछ ठीक था किन्तु समय के साथ सूर्य का तेज बढ़ता गया। इस कारण सूर्यदेव की पत्नी संध्या उनका ताप सहन नहीं कर पाती। सूर्यदेव के पुत्र यम ने तपस्या के लिए सूर्य लोक से प्रस्थान किया। यह देख देवी संध्या ने भी तप करने का निश्चय किया जिससे की वो सूर्य देव का ताप सहन कर पाए। देवी संध्या ने यह निश्चय किया की वो अपने प्रतिरूप अपनी छाया को अपनी जगह सूर्य लोक में छोड़ कर गुप्त रूप से तपस्या के लिए प्रस्थान कर जाएँगी।
देवी संध्या ने अपने प्रतिरूप छाया की रचना करी और अपनी जगह उन्हें सूर्यलोक में छोड़ कर चली गई। देवी छाया देवी संध्या की प्रतिरूप तो थी ही परन्तु सभी प्रकार से भी उनके जैसी ही थी। समय बीतता गया और देवी छाया को सूर्य देव से एक पुत्र शनि की भी प्राप्ति हुई। जब सूर्य पुत्र यम अपनी तपस्या पूर्ण कर वापस लौटे तो उन्हें सत्य का अहसास होगया की देवी छाया उनकी माँ संध्या नहीं कोई और है। यम ने सूर्यदेव को भी इस सत्य से अवगत करा दिया। इस पर देवी छाया ने भी सत्य स्वीकार किया और सारा वृतांत सुनाया। सूर्य देव को सारा सत्य ज्ञात होते ही वे अपनी पत्नी देवी संध्या के पिता देव शिल्पी विश्वकर्मा के पास गए और उनसे चर्चा करी की वे अपना तेज कम नहीं कर सकते और उनके तेज के कारन उनकी पत्नी देवी संध्या उनके समीप नहीं आ पा रही है और तपस्या के लिए चली गई है।
देव शिल्पी विश्वकर्मा ने अपने विशेष उपकरणों से सूर्य देव के तेज को खंडित किया। फिर सूर्यदेव के अतिरिक्त तेज से सभी देवताओ के लिए अस्त्र शास्त्रों का निर्माण किया। सभी देवताओ को शस्त्र प्रदान करने के बाद भी 1 शस्त्र बच गया। यह 1 मृत्यु पाश था जो किसी का भी स्पर्श करे तो उसकी तत्काल मृत्यु हो जाये। उस पाश में जीव के अंदर से आत्मा खींचने की शक्ति थी। इस पाश ने स्वयं ही सूर्य पुत्र यम को अपने स्वामी के रूप में चुन लिया।
मृत्यु पाश के यम को स्वीकार करने के बाद माता भैरवी ने यम को मृत्यु का देवता घोषित कर दिया। मृत्यु के बाद आत्माये जिस लोक में वास करेंगी, यम को उस लोक का अधिपति घोषित कर दिया। अब उस लोक को यम लोक कहा जाने लगा। यम लोक की व्यवस्था को सुचारु और नियंत्रित रूप से चलने का दायित्व यम को दे दिया। आयु सामप्त होने पर जीव को इस पाश से बंदी बना कर यम लोक लेकर उसके कर्मो के अनुसार उसकी उचित गति निर्धारित करने का दायित्व सौंप दिया।
माता भैरवी और भगवान कालभैरव ने चित्रगुप्त और यमदूतो को प्रकट करके उन्हें यमराज का सहायक बनाया। चित्रगुप्त को समस्त लोको के समस्त जीवो के कर्मो का विस्तृत लेखा जोखा रखने का दायित्व दिया। विचार, शब्द और क्रिया से जीव जो भी कर्म करेंगे चित्रगुप्त उन्हें सूचि बद्ध करेंगे। जब मृत्यु होगी, यमराज अपने दूतो की सहायता से उन आत्माओ को उनके कर्मो के अनुसार उचित फल देंगे।
यमराज को आदेश दिया की उन्हें यमलोक में बैठ कर भुविचार नमक आसान पर बैठ कर आत्माओ के कर्मो पर विचार करने का आदेश दिया। यमराज को निर्देश दिया गया की जब भी किसी जीव की नियम अनुसार मृत्यु आये तो किसी भी कीमत पर वो टलनि नहीं चाहिए।
इसप्रकार संसार चक्र सुचारु रूप से चलने लगा। मनुष्य का भाग्य नियति द्वारा पूर्व निर्धारित होता है परन्तु मनुष्य सच्ची भक्ति, सत्कर्म और भगवान की प्रार्थना कर अपने अथक प्रयास से मनुष्य अपनी नियति परिवर्तित कर सकता है।
संसार में जीव मात्रा के कल्याण के लिए अनेको अविष्कार और विधान हुए। वे सब इश्वर की कृपा से ही हुए है। वो जिस भी जीव के द्वारा हुए हैं उन्हें बस उसका माध्यम बनने का सौभाग्य इश्वर द्वारा प्रदान किया गया है। संसार के समक्ष उस श्रेय का पत्र तो माध्यम बनता है किन्तु वास्तव में सम्पूर्ण श्रेय इश्वर का ही है। इश्वर की लीला का माध्यम प्रत्येक व्यक्ति नहीं बन सकता। उसके लिए भी सुपात्र होने के आवस्यकता है।
जो मन, वचन और कर्म से शुद्ध होता है, जिसमे भक्ति के प्रति आत्मा विश्वास होता है, वही ईश्वरीय लीला का माध्यम बनता है।