तृतीया अध्याय – आदि पराशक्ति की उत्त्पति

जब भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि के सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्हें अनेकोनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। उन्होंने पाया कि वो जिस भी जीव की रचना करते हैं वह अपना जीवन कल पूरा करके नष्ट हो जाता है और इस कारन उन्हें निरंतर नए सिरे से जीव का सृजन करना पड़ता है।

 

अपनी इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने भगवान सदाशिव की कठोर तपस्या करी। अंततः भगवान सदाशिव प्रसन्न हुए और भगवान ब्रह्मा को इस समस्या के सामाधान हेतु प्रेरणा देने के लिए अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रकट हुए।

अर्ध भाग में वे शिव (नर) थे तथा अर्ध में शिवा (नारी)।

अपने इस स्वरूप से भगवान शिव ने भगवान ब्रह्मा को प्रजनन का रहस्य समझाया और पुरुष एवं स्त्री का रहस्य समझाया।

सृष्टि के निर्माण के हेतु भगवान सदाशिव ने अपनी शक्ति (आदि पराशक्ति) को स्वयं से पृथक किया। भगवान सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी परन्तु सृष्टि के सुचारु रूप से चलने के लिए उन्होंने ये पीड़ा सही और विश्व कल्याण के लिए ये त्याग किया।

माता शक्ति ही इस संसार की प्रकृति है, गुणवती माया है, विकाररहित है और बुद्धि तत्व की जननी है।

शिव पुरुष के और माता शक्ति स्त्री की द्योतक हैं ।

 

शिव और शक्ति पृथक रहते हुए भी एक ही हैं।

  • शिव तत्त्व (matter) है और शक्ति ऊर्जा (energy) है।
  • शिव सागर के जल सामन हैं। शक्ति सागर की लहर हैं।
  • शिव हृदय है । शक्ति मस्तिष्क हैं।
  • शिव पुरुष हैं। शक्ति प्रकृति है।
  • शिव कारण हैं। शक्ति कारक है ।
  • शिव सूर्य है। शक्ति सूर्य का प्रकाश है।
  • शिव संकल्प करते हैं। शक्ति संकल्प सिद्धी करती है ।
  • शिव अग्नि है। शक्ति अग्नि का ताप है।
  • शिव सुसुप्तावस्था है । शक्ति जागृत अवस्था हैं।

 

स्वयं शिव का कथन है: शक्ति के बिना शिव ‘शव’ के सामान है।

पुरुष और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित होने के कारन ही ये सृष्टि सुचारु रूप से चल रही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *